Saturday, 19 April 2014

इस सपना सलोना

कोई सपना सलोना चाहता है,
लिपटकर मुझसे रोना चाहता है!!!

तू मेरा चैन खोना चाहता है,
तो क्या बेचैन होना चाहता है!!!

उसे माँ चाँद दिखलाने लगी है,
मगर बच्चा खिलौना चाहता है!!!

मैं नीली छत के नीचे ख़ुश हुआ तो,
वो बारिश में भिगोना चाहता है!!!

मुझे जो फूल-सा मन दे दिया है,
बता किस में पिरोना चाहता है!!!

बनाना चाहता है मुझको कश्ती,
वो ख़ुद पानी का होना चाहता है!!!

मैं उसका बोझ हल्का कर रहा हूँ,
मगर वो दुख को ढोना चाहता है!!!

कभी दिखता है, छुपता है कभी तू,
तो तू क्या चाँद होना चाहता है!!!

हुआ है मेरा एहसास बेघर,
ये मिट्टी का बिछौना चाहता है!!!

मेरे सुर और मेरे गीत

तुम मुझसे बस शब्द और सुर ले पाये,
पर बोलो ! कैसे छीनोगे मुझसे मेरे गीत
मुझको तो बस गीत सुनाना आता है,
होंठो पर संगीत सजाना आता है।।।
गहरा रिश्ता है मेरा पीड़ाओं से,
फिर भी मुझको हास लुटाना आता है।।।

तुम मुझको बस आह-कराहें दे पाये,
पर बोलो ! कैसे छीनोगे मुझसे मेरे मीत
मेने गीतों में अपनी वह प्यास पढ़ी है,
बरसों से जो प्यास उम्र के साथ चढी है।।।
तृप्त कराने कोशिश जब जब भी हुई है,
तब-तब यह तो और उग्रतर हुई-बढ़ी है।।।

तुम मुझको बस प्यासी तृष्णा दे पाये,
पर बोलो ! कैसे छीनोगे मुझसे मेरी प्रीत
मैंने जीवन की बगिया में आंसू बोया है,
मैंने जिसको चाहा है-बस उसको खोया है।।।
पीड़ा से मेरी आँखें जब-जब भीगी हैं,
तब तब गले लिपट कर मुझसे, गीत भी रोया है।।।

तुम मुझको बस हार पुरानी दे पाये,
पर बोलो ! कैसे छीनोगे मुझसे मेरी जीत
मुझे पता है- इन राहों में फूल नहीं हैं,
किंतु बताओ ! कहाँ जगत में शूल नहीं हैं।।।
जब शूलों से यारी करना आवश्यक हो,
तब गीतों का साथ बनाना भूल नहीं है।।।

मर गए हम तो बहुत आराम से

दिल हमारा लापता है शाम से
कर रहा है क्या ? गया किस काम से!!!
दर्द दे कर दिल हमारा ले लिया,
हो गए दोनों बड़े अंजाम से!!!
लाश में ही जान अब तो डालिए,
एक भी बाक़ी न क़त्लेआम से!!!
आप हों चाहे न जितनी दूर क्यों ?
जी रहे हम आपके ही नाम से!!!
ज़िंदगी गुज़री मुसीबत से भरी,
मर गए हम तो बहुत आराम से!!!

सोचता रहता हूँ मैं


फ़र्ज़ के बंधन में हर लम्हा बधा रहता हूँ मैं,
मैं हूँ दरवाज़ा मुहब्बत का खुला रहता हूँ मैं।।।
दोस्तों से मिलना-जुलना हो गया कम इन दिनों,
तेरी यादें ओढ़कर घर में पड़ा रहता हूँ मैं।।।
मेरे चारों सिम्त हैं सब लोग कीचड़ में सने,
देखना है दूध का कब तक धुला रहता हूँ मैं।।।
भूल जाना गलतियाँ मेरी बड़प्पन है तेरा,
और मेरा बचपना, ज़िद पर अड़ा रहता हूँ मैं।।।
आंसुओं से रिश्ता मेरा जोड़ते रहते हो तुम,
ख़्वाब जैसे रफ़्ता-रफ़्ता टूटता रहता हूँ मैं।।।
फूल सी महकी ग़ज़ल मिसरे चराग़ाँ कर उठे,
ज़ख्म-ए-दिल सा शायरी में भी हरा रहता हूँ मैं।।।
मैं भी अपने घर की शायद फालतू सी चीज़ हूँ,
कोई सुनता ही नहीं पर बोलता रहता हूँ मैं।।।
जानता हूँ लौटना मुमकिन नहीं तेरा मगर,
आज भी उस रहगुज़र को देखता रहता हूँ मैं।।।
नाम लेकर तेरा, मेरा लोग उड़ाते हैं मज़ाक़,
इस बहाने ही सही तुझसे जुड़ा रहता हूँ मैं।।।
फ़र्ज़ के बंधन में हर लम्हा बधा रहता हूँ मैं,
मैं हूँ दरवाज़ा मुहब्बत का खुला रहता हूँ मैं!!!
इश्क़ दिखाता है अजब रंग दोस्त,
चोट तो उसको लगी देखिये चोटिल हुआ मैं।।।
फूल से ज़ख़्म की ख़ुशबू से मुअत्तर ग़ज़लें,
लुत्फ़ देने लगीं और दर्द से ग़ाफ़िल हुआ मैं!!!
जब मैं आया था जहाँ में तो बहुत आलिम था,
जितनी तालीम मिली उतना ही जाहिल हुआ मैं!!!
जब तेरे पाँव की आहट मेरी जानिब आई,
सर से पा तक मुझे उस वक़्त लगा दिल हुआ मैं।।।
मुद्दतों आँखें वज़ू करती रहीं अश्कों से,
तब कहीं जाके तेरी दीद के क़ाबिल हुआ मैं।।।
खींच लायी है मुहब्बत तेरे दर पर मुझको,
इतनी आसानी से वर्ना किसे हासिल हुआ मैं।।।
बन्द दरवाज़े खुले रूह में दाख़िल हुआ मैं,
चन्द सज्दों से तेरी ज़ात में शामिल हुआ मैं।।।

Wednesday, 9 April 2014

रक़्स

साहिल-ए-इंतिज़ार में तन्हा,
याद वो लहर लहर आए मुझे।।।

दश्त-ए-दीवानगी के टीलों पर,
रक़्स करती हवा बुलाए मुझे।।।

अजनबी मुझ से आ गले मिल ले,
आज इक दोस्त याद आए मुझे।।।

भूल बैठा हूँ मैं ज़माने को,
अब ज़माना भी भूल जाए मुझे।।।

इक घरौंदा हूँ रेत का पैहम,
कोई ढाए मुझे बनाए मुझे।।।

एक हर्फ़-ए-ग़लत हूँ हस्ती का,
दोस्ती क्यूँ न फिर मिटाए मुझे।।।

दफ़अतन मेरे रू-ब-रू आ कर,
आईने में कोई डराए मुझे।।।

आँधियाँ क्यूँ मेरी तलाश में हों,
एक झोंका ही जब बुझाए मुझे।।।

राख अपनी उमंग की हूँ ,
आ के झोंका कोई उड़ाए मुझे।।।

तिश्नगी

सूखते होंठों पे हमको तिश्नगी अच्छी लगी।
जिंदगी जीने की ऐसी बेबसी अच्छी लगी।।

इस नुमाइश ने दिखाए हैं सभी रंजो-अलम,
इस नुमाइश की हमें ये तीरगी अच्छी लगी।।।

हैं वसीले और भी, फितरत-बयानी के लिए,
पर हमें नज्मो-ग़ज़ल, ये शाइरी अच्छी लगी।।।

आलिमों ने इल्म की बातें बताईं है बहुत,
पर हकीकत में हमें दो-चार ही अच्छी लगी।।।

ख्वाहिशें सबकी कभी पूरी नहीं होतीं मगर,
जो तुम्हारे साथ गुज़री, जिंदगी अच्छी लगी।।।

आज इन हालत में भी हैं मेरे हमराह वो,
कुछ चुनिन्दा लोग, जिनको रोशनी अच्छी लगी।।।

सड़कों के किनारे

सड़कों के किनारे

छूट जाती हैं रातें,
इन सड़कों के किनारे ।
बादे-सहर लौट जाती है,
खटका के खिड़कियाँ ।
कोई आवाज़ देता रह जाता है,
कितना कुछ छूटता जाता है,
इन सड़कों के किनारे ।।
आ, तैर के पार करेंगे,
ये रात हम दोनों ।
पानी काफी है अभी,
इन आँख में दोनों ।
दिन छोड़ जाता है निशान,
जिन्हें ये सड़कें ढूँढ़ती हैं ।
अपनी ही उलझन में,
ये रह रह के मुड़ती हैं ।